क्या बदल गया ,और क्या बदल जाता ?
ये सवाल गर मन मे पहले ही मचल जाता ।
ठंड सुबहो को इस कदर नही बढ़ती
ख्याल तेरा गर रातों को नही आता।
मेरे अस्तित्व से जुदा हो , तो सोंचता हूँ
क्या होता गर कोई दूसरा नही आता।
लकीर माथे की बयां कर रही है यकीनन
तुझे वादाखिलाफी का सलीका नही आता।
किसी के ख्वाब किसी और से सांझा करके
पलकों में नींद तो आती है, सपना नही आता।
नए सफर पे निकले हो तो मुकाम मिल ही जायेगा
कौन कहता है पुराना तजुर्बा काम नही आता ?
शुभम की कलम से
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