कानून व्यवस्था में सुधार की कितनी भी बातें/कोशिशें कर लीजिए, लेकिन खाकी वर्दी की आड़ में इंसानी दिमाग को हद पार कर जाने से रोकना असंभव सा प्रतीत हो रहा है, परिणामस्वरुप पुलिस अभिरक्षा (कस्टडी) में होने वाली मौतों पर अंकुश लगाना असंभव सा प्रतीत होने लगा है। कुछ खाकी वर्दीधारियों के चलते पूरा कानूनी सिस्टम सवालों के घेरे में आ जाता है। जहां कानून का इकबाल बुलंद करने वाले सिस्टम से मानवीय संवेदना की अपेक्षा न सिर्फ मुश्किल, बल्कि कई बार अर्थहीन साबित होता है।
पुलिस अभिरक्षा में मौत का ताजा मामला उत्तर प्रदेश में श्रावस्ती जिले का है। स्थानीय मीडिया के मुताबिक, जिले के गिलौला थानाक्षेत्र के मोहम्मदापुर गांव में अनुसूचित जाति की एक युवती द्वारा छेड़छाड़ का आरोप लगाने के बाद पुलिस ने विगत 31 अगस्त को गांव से संबंधित युवक को हिरासत में ले लिया। नियमत: 24 घंटे के भीतर उसे न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना था, लेकिन अभिलेखों में गिरफ्तारी न दिखाकर पुलिस उसे थाने पर अवैध रूप से रोके रही। परिजनों का आरोप है कि युवक को छोड़ने की एवज में थाने में रिश्वत की मांग की जा रही थी, जिसे दे पाने में वे अक्षम थे।
खैर, अगले दिन जब परिजन थाने पहुंचे, तो पुलिस वालों ने उन्हें धमकाया और टरकाते रहे, लेकिन थाने का घेराव होने पर पुलिस ने बताया कि रात में तबीयत बिगड़ने पर युवक को बहराइच ले जाया गया, जहां उसने दम तोड़ दिया। थाने के घेराव का मामला जब जिले के एसपी के संज्ञान में आया, तो थानाध्यक्ष ने उन्हें फोन पर बताया कि हिरासत में लिया गया छेड़छाड़ का आरोपी सुबह शौच के लिए गया था। इस दौरान शौचालय में उसने रस्सी के सहारे फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। वहीं परिजनों का आरोप है कि युवक की मौत पुलिस की पिटाई से हुई है।
अभी सप्ताह भर पहले रायबरेली में एक 19 वर्षीय किशोर की मौत पुलिस अभिरक्षा में हो गई। उससे पहले प्रतापगढ़ और हापुड़ में ऐसे मामले सामने आ चुके हैं। इसी वर्ष फरवरी में वाराणसी में पुलिस अभिरक्षा में लिया गया बीएचयू छात्र रहस्यमय तरीके से गायब हो गया। इंतजार करते थक चुके परिजनों ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, अब कोर्ट ने आदेश दिया है कि लापता छात्र को 22 सितम्बर तक पेश किया जाए। पुलिस अभिरक्षा और न्यायिक हिरासत में होने वाली मौतों का आंकड़ा चौंकाता है, लाइव हिंदुस्तान की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2016 से 2019 के दौरान उत्तर प्रदेश में करीब 1242 मौतें न्यायिक हिरासत के दौरान हुई।
जबकि पुलिस अभिरक्षा में 33 लोगों की मौत हुई। इनमें ज्यादातर मौतें पुलिस टॉर्चर के चलते हुई हैं। कई मामलों संबंधित पुलिस वालों पर कार्रवाई हुई है, जबकि अधिकतर मामलों में साक्ष्य के अभाव में जांच अटकी हुई है। छोटे-छोटे मामलों में होने वाले पुलिसिया टॉर्चर के चलते अभिरक्षा में होने वाली मौतें न सिर्फ पुलिस के बर्ताव पर सवाल कर रही हैं बल्कि इंसानी संवेदना को झकझोर रही हैं।
दुर्गेश तिवारी