हमारे देश में चुनाव उत्सव की तरह मनाए जाते हैं। चाय की चुस्कियों, खाने की टेबल, ऑफिस, बस में, ट्रेन में, खेत की मेड़ पर चारों ओर कुपोषित विकास को पोषित करने और प्रौढ़ हो चुके लोकतंत्र को बचपन से बचाने का दावा करने वाले रंगे सियार मिलने शुरू हो जाएंगे। हर किसी की अपनी थ्योरी होती है और सामने वाले को बेवकूफ समझने का टैलेंट।
चूंकि डिजिटल इंडिया का जमाना है तो राजनैतिक पार्टी रूपी कंपनियां इस महासेल के मौसम (चुनाव) में खरीददारी करने के लिए पूरी तरह से तैयारी में जुट गई हैं। वे वैचारिक हार्डडिस्क के साथ मदरबोर्ड में जाति, धर्म, बेरोजगारी, आरक्षण, किसान समेत कई ट्रेंडिंग सर्किटों को एक साथ कर वोटबैंक रूपी कम्प्यूटर मजबूत कर रही हैं ताकि दूसरे हैकरों से बचाव किया जा सके।
भावनात्मक रूप से कमजोर होने के कारण हमारे देश के नेताओं को चुनावों के दौरान भारत का आम नागरिक कम्प्यूटर जैसा दिखता है। जिसमें ये कंपनियां कई महीने तक पढ़े और अनपढ़ सोशल इंजीनियरों (नेताओं) से अपने झूठे सच्चे वादों की प्रोग्रामिंग करती हैं जिससे पैसा और पावर रूपी मैटीरियल उनकी झोली में आ जाता है। महासेल (मतदान) के दिन बस एक क्लिक के साथ जनप्रतिनिधि रूपी वाले सॉफ्टवेयर तैयार किए जाते हैं। इन सॉफ्टवेयरों में बीडीसी, प्रधान, ब्लॉक प्रमुख, जिला पंचायत सदस्य, विधायक, सांसद जैसे फोल्डर मुख्य होते हैं।
इसके बाद सजती है इन सॉफ्टवेयरों की मंडी। जहां जरूरत के हिसाब से ये विभिन्न विभागों (पदों) में पेनड्राइव (उपहारों) के माध्यम से मौके आने पर इंस्टॉल कर दिए जाते हैं। इन सॉफ्टवेयरों की वर्जन, वैलिडिटी और क्षमता के हिसाब (दलबदलू, 1साल, 5 साल) से इनका रेट सेट होता है। मतलब कौन कितने दिन साथ देने वाला है। कुछ सॉफ्टवेयर तो पेटेंट कराए जाते हैं जबकि कई ऐसे होते हैं जो पैकेज की तरह मौजूद होते हैं।
हर पैकेज में डिस्काउंट और एक के साथ एक वाली कहानी सेट होती है। हां एक बात और मौका पाते ही ये सॉफ्टवेयर अपडेट हो जाते हैं और फिर इनका भाव बढ़ जाता है, ऐसे में कई बार कंपनियां तगड़े एंटीवायरस एक्टिवेट कर देती हैं जो इनके दिल मे टीस जैसा होता है। इस मंडी में कंपनी वाले सॉफ्टवेयर तो बिकते ही हैं साथ ही ऐसे सॉफ्टवेयर जिनकी कोई कंपनी नहीं होती वो और महंगे होते हैं। कारण एक ही होता है कि ये हेल्पिंग हैंड वाली भूमिका में होते हैं। मतलब जिधर कंधा दे दिया समझो उस कम्प्यूटर का हैकर कुछ नहीं कर सकते।
चूंकि मंडी वाला यह सारा मामला अनाधिकृत रूप संचालित होता है जिसका सुबूत शायद ही किसी के पास होता है। ऐसे सरकार का बहुत नुकसान हो रहा है। तो मित्रों एक ई-पॉलिटिकल कॉमर्स वेबसाइट होनी चाहिए। जिसका टैक्स रिटर्न फाइल किया जाए। जहां फ्लिपकार्ट, अमेजॉन वेब साइटों जैसी संरचना हो।
जिसमें सेक्शन के हिसाब से आरक्षण, जातिवाद, किसान, गरीब, जवान, बेरोजगार जैसे प्रोडक्ट हर दिन नए रंग रूप के उपलब्ध हों। वोट बैंक की मजबूती के हिसाब से सॉफ्टवेयर मौजूद हों। इनके अपडेट होने की तारीख भी फिक्स हो ताकि अभी भी घिसट कर चल रहे कुपोषित विकास को पोषित करने के लिए बनाई जा रही योजनाओं में लगने वाले समय और आने वाली परेशानी का सही पता लगाया जा सके।
हालांकि कुपोषित विकास को गर्व करना चाहिए कि उसको मार्केट वैल्यू जबरदस्त है। उसको अपनाने के लिए कंपनियों में होड़ मची हुई है। हर कोई उसे अपने अपने तरीके से स्मार्ट बनाने की बात कह रहा है। साथ ही प्रौढ़ हो चुके लोकतंत्र को खुश होना चाहिए कि उसके तने की छांव में पले बढ़े रंगे सियार उसे बचाने के लिए जी जान से सोशल मीडिया पर जुटे हैं। बिना यह जाने की आखिरकार उसको को खतरा किससे है।
दुर्गेश तिवारी (दैनिक जागरण-मेरठ)
नोट- ये लेखक के निजी विचार हैं