अपने शीर्षक “कस्तूरबा की रहस्यमयी डायरी” के मुताबिक, किताब महात्मा गांधी और कस्तूरबा के जीवन के अनेक रहस्यों से परिपूर्ण है। बावजूद इसके कटु सत्य यही है कि मोहनदास करमचंद गांधी को दुनिया ने महात्मा माना पर कस्तूरबा को उनके त्याग, समर्पण के सापेक्ष रख पाने में असफल रहे।
ऐतिहासिक तथ्यों की पृष्ठभूमि में लिखी गई किताब कस्तूर बाई (कपाड़िया) के परलोक गमन से शुरू होती है और भारत के बापू, टैगोर के महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी के दाह संस्कार पर उनके बड़े बेटे हरिलाल गांधी के भावों की कल्पना के साथ ख़त्म होती है। वही हरिलाल गांधी जो युवावस्था में एक बार अपने पिता से अलग हुए तो तमाम भावनात्मक वाद-संवाद के बावजूद ताउम्र उनके रास्ते अलग ही रहे।
किताब पढ़ते हुए कई बार जहां आप सत्य की साधना में लगने वाले कठिन मूल्य से रूबरू होते जाते हैं, वहीं एक शताब्दी पहले साम्राज्यवादी शक्तियों के खिलाफ महात्मा गांधी द्वारा किए गए असाधारण प्रयोगों के बीच रोमांच का अनुभव करते हैं। कस्तूर बाई के नजरिये से लिखी गई पुस्तक बापू के जीवन के उस हिस्से के बारे में बात करती है, जो ताउम्र दुनिया की नजरों से दूर पर उनकी सहचर बनीं बा के दैनिक जीवन का हिस्सा रहा।
काठियावाड़ के पोरबंदर में साथ बचपन बिताने और दीवान करमचंद गांधी के लाडले मोहनदास से बाल विवाह का वर्णन करते हुए लेखिका कस्तूर बा के माध्यम से उद्धृत करती हैं कि अगर तब किसी ने मुझसे कहा होता कि यह किशोरपूर्व आयु का गांधी जो मुझे माला पहनाने के लिए विवाह मंडप में सब्र से खड़ा इंतजार कर रहा था, आने वाले वर्षों में अजीबोगरीब यौन प्रयोगों और मस्तिष्क को बदलने वाली अनुष्ठानिक गतिविधियों में लिप्त होगा तो शायद मैं भाग खड़ी होती।
किताब में वर्णित है कि दोनों के परिवार अभिजात्य वर्ग से ताल्लुक रखते हैं, जिनके घरों की औरतें अपने धार्मिक हिंदू रीति रिवाजों को अपनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। कस्तूर बाई ब्याह कर मोहनदास के घर आती हैं, तो उन्हें सास पुतलीबाई का साथ मिलता हैं। पर यौनेच्छा से इतर पंद्रह साल की कस्तूर बाई को जल्द ही अहसास होता है कि मोहनदास ठेठ सत्तात्मक भारतीय पति हैं, जो वैवाहिक अधिकारों की आड़ में दमघोंटू प्रतिबंधों का पालन करवाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते है। वही प्रतिबंध जिनका स्वरूप बाद में बदलता है और वे सत्य के प्रायोगिक रूप में जीवन के पूर्वार्ध में बापू की आश्रम व्यवस्था का प्रमुख आधार बनते हैं। वही प्रतिबंध और दृढ़ता जो बापू को उनके अपने बेटे हरिलाल गांधी से न सिर्फ दूर कर देते हैं, बल्कि एक समय में अपने बेटे द्वारा अपमानित करने की कोशिश का आधार बनते हैं।
किताब पढ़ते हुए पता चलता है कि महात्मा के बचपन से युवावस्था तक की कहानी के बीच कई मोड़ आते हैं, जहां संशयवाद की जकड में मोहनदास धार्मिक विश्वास और मनमौजीपन में फर्क नहीं कर पाते हैं, वहीं वैष्णवभक्त परिवार से ताल्लुक रखने के बावजूद भौतिक आकांक्षा के चलते मांसभक्षण करने से भी नहीं हिचकते। हालांकि वे बाद में अपराधबोध से भर जाते हैं, लेकिन खुद को कमजोर नहीं पड़ने देते हैं, जो जीवन के अन्य वर्षों में उनका अहम शस्त्र बन जाता है।
किताब अपने सफर में बताती है कि बचपन से अपने उसूलों के प्रति दृढ प्रतिज्ञ रहने वाले मोहनदास अन्याय के सामने झुकते नहीं हैं। फिर चाहे वह देश से बाहर पढ़ने के लिए जाते वक्त मोढ़ बनिया समुदाय की ओर से विरोध को नजरंदाज करना हो या दक्षिण अफ्रीका में गोरों के खिलाफ भारतीय समुदाय के पक्ष में किए गए उपक्रमों के अनुभव हो। सच का साथ और संयमित जीवन मोहनदास को हर जगह स्थापित कर देता है। लेकिन उसी सत्य और संयमित जीवन में कस्तूर बाई, जो तबतक कस्तूरबा बन चुकी हैं न सिर्फ भयभीत रहती हैं बल्कि कभी कभी विद्रोह करना चाहती हैं। धीरे धीरे आश्रम व्यवस्था के एक ऐसे मॉडल की शुरुआत होती है, जो मोहनदास को महात्मा बनाती है, लेकिन कस्तूरबा के जीवन की दुश्वारियों को कम करने के बजाय बढ़ाती है।
किताब अपने प्रवाह में बताती है कि बेटे हरिलाल के प्रति मोहनदास की असहिष्णुता की कीमत कस्तूरबा को मां के रूप असीम दुख से चुकानी पड़ती है। लेकिन सारी प्रतिकूल स्थितियां तब कस्तूरबा को मजबूत बनाती हैं, जब बापू के बार बार जेल जाने पर कस्तूरबा आश्रम और परिवार दोनों संभालते हुए अन्याय के खिलाफ लड़ाई में कूद पड़ती हैं।
कस्तूरबा को महात्मा गांधी के संयम और कठोर प्रतिबंध हमेशा विचलित करते हैं। फिर चाहे चौथी संतान देवदास गांधी के जन्म के कुछ माह बाद, अचानक ब्रह्मचर्य धारण करने का एकतरफा आदेश हो (तुम्हें अलग कमरे में सोना पड़े कस्तूर, अब हम पति पत्नी नहीं रहेंगे) या तब जब युवा मणिलाल गांधी को टॉलस्टॉय फार्म में बारह साल के ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा लेनी पड़ती है और ललिता के साथ एक और लड़की चंदा को यौवनावस्था में अपने बालों की कुर्बानी देनी पड़ती है क्योंकि मणिलाल ललिता पर मोहित हो गए थे।
तदन्तर नोआखाली में अपनी यौनेच्छा पर पूर्ण नियंत्रण के लिए ब्रह्मचर्य के प्रयोगों का जो सिलसिला चलता है, और जनमानस में विषाद उत्पन्न होता है, उसे लेखिका कस्तूर की कल्पना में हूबहू उतार पाने में सफल रहती हैं। साथ वे विवाहयोग्य हो चुकी दोनों स्त्रियों की यौनेच्छा और उत्तेजना के बारे में भी सवाल करती हैं, और कई तर्कों के साथ इस प्रयोग को असफल करार देती हैं। और बताती हैं कि निश्चय ही सत्य एक अच्छा नारा है, मगर वास्तविकता के गलियारों में रूबरू होने पर यह प्रकाशित नहीं करता, शक्तिहीन कर देता है। और अगर उन्माद के मूर्खतापूर्ण स्तर तक ले जाया जाए तो भीतरी शांति को नष्ट कर देता है।
किताब का अधिकतर हिस्सा महात्मा गांधी और कस्तूरबा के निजी जीवन पर आधारित है, जो देश की आजादी के लिए किए जा रहे प्रयासों के बीच कस्तूरबा के मन में उठ रहे झंझावातों को हूबहू प्रदर्शित करती है। अंतिम पन्नों में किताब देश की आजादी, हिन्दू मुस्लिम दंगे, नरसंहार और महात्मा गांधी के जिद्दी अनशनों के बारे में बात करती है, जो कि अंततः उनके परलोक गमन का आधार बनते हैं।