तीन राज्यों में भाजपा की हार के बाद पूरे देश की राजनीतिक चर्चाएं विराम लेने के बजाय और ज्यादा तेज हो गई हैं। कुछ लोग सदमे में हैं, तो कुछ लोग कुप्पा होकर बातें कर रहे हैं। सांसदी में भी यही हाल होगा या उस वक्त मुद्दे अलग होंगे, सवाल सबके जुबान पर यही हैं। चू्ंकि शिकस्त ताकतवर की हुई है, इसलिए भी बहस की नैतिकता उफान पर है। लोकतंत्र की खूबसूरती तय की जा रही है। ऐसा लग रहा है कि यदि भाजपा जीत जाती, तो लोकतंत्र की खूबसूरती का पैमाना भारतीय न होकर अफ्रीकन हो जाता। दरअसल भारतीय लोकतंत्र है ही इतना नकली, जो किसी एक दल की एक जीत या हार से अपना रंग बदल लेता है।
कोई शक नहीं कि ये विधानसभा चुनाव कई मुद्दों के लिहाज से अहम थे। खासकर किसानों का मुद्दा पूरे चुनावी शोर में अपनी अलग ही आवाज दे रहा था। कांग्रेस का यह शोर कितना वास्तविक था, इसका अंदाजा बहुत जल्द हो जाएगा। इसके अलावा लोगों में बदलाव की ख्वाहिश का नतीजों में अपना वजन है। राज्य के शीर्ष नेताओं से लेकर स्थानीय नेताओं का रवैया तो खैर स्वाभाविक तौर पर चुनाव का आधार होता ही है।मगर जिन्हें यह लगता है कि इसी प्रदर्शन को अगले लोकसभा चुनाव के लिए लिटमस टेस्ट समझा जाना चाहिए, वे थोड़ी जल्दबाजी कर रहे हैं। कोई शक नहीं कि देश में प्रचंड राजनीतिक सफलता का स्वाद चखने वाली भारतीय जनता पार्टी के लिए ताजा नतीजे झटका देने वाले हैं। क्योंकि इन चुनावों में बहुराष्ट्रीय कंपनी की तरह ब्रांड मोदी ने ‘स्वदेशी दिग्गजों’ को टक्कर तो दी, पर अंततः पिछड़ गया। मगर पिछड़ने का मतलब यह भी नहीं होता कि उसका वजूद खत्म हो गया।
वैसे भी ब्रांड की अकादमिक परिभाषाओं में ‘निष्ठा’ की बात कही जाती है और कम से कम निष्ठा न तो आसानी से बनती है और न ही आसानी से घटती है। लेकिन एक बार घटने के बाद दोबारा वापस आने में जरूर वक्त लेती है। तेलंगाना में केसीआर का शानदार प्रदर्शन सिर्फ और सिर्फ राज्य निष्ठा के बल पर संभव हुआ है। अगला लोकसभा चुनाव अपने-अपने ब्रांड के वजूद को साबित करने के लिए लड़ा जाएगा, जिसे ऊपर से सजाने के लिए जनता के कुछ मुद्दे भी होंगे। हमें डायबिटीज के मरीज की तरह पारंपरिक राजनीतिक तौर-तरीकों की शक्कर से परहेज कर लेना चाहिए। मोबाइल नेटवर्क की पीढ़ियां बहुत जल्दी-जल्दी बदल रही हैं, बिल्कुल मतदान पैटर्न की तरह। उन्नीस का राजा उन्नीस में ही तय होगा, न अट्ठारह में और न ही बीस में।
नूतन गुप्ता (अमर उजाला)