विश्वभर में प्रदूषण को लेकर जहाँ तक प्रोपेगेंडा खड़ा करने की बात है तो ज्ञातव्य है कि ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के हौव्वें के विरोध में वरिष्ठ अमरीकी भौतिकशास्त्री हेरोल्ड लेविस ने 2010 में प्रतिष्ठित अमेरिकन फिजिकल सोसाइटी की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था। उन्होंने ग्लोबल वार्मिंग को सर्वाधिक सफल अवैज्ञानिक धोखे के संज्ञा दी थी। अगले ही वर्ष 2011 में इसी मुद्दे पर नोबेल पुरस्कार से सम्मानित प्रो० इवार गिएवर ने भी APS की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था। विदेशी कम्पनियां किस प्रकार सिगरेट के धुएं को बेचती थीं इसका एक उदाहरण तब सामने आया था जब 1996 में बायोकेमिस्ट जेफ्री वाइगैंड ने ब्राउन एंड विलियमसन तम्बाकू कम्पनी के राज़ उजागर किये थे। यह कम्पनी सिगरेट में अमोनिया जैसे हानिकारक रसायन मिलाती थी जिससे निकोटीन का प्रभाव बढ़ाया जा सके। आज भारत को पेट्रोल का उपयोग कम करने की नसीहत देने वाले अमरीका में नब्बे के दशक तक पेट्रोल में लेड (सीसा) का प्रयोग होता था। पेट्रोल में सीसा के विरुद्ध क्लेयर पैटरसन ने लम्बी लड़ाई लड़ी थी जिसके फलस्वरूप दुनियाभर में सीसा रहित पेट्रोल उपलब्ध हो सका।
सिगरेट जैसा मादकपदार्थ हो अथवा पेट्रोल जैसी उपयोगी वस्तु ये सभी आज मानव जीवनशैली के अभिन्न अंग हैं। हम लाख प्रयास कर के भी इनका प्रयोग एकदम समाप्त नहीं कर सकते। इसी प्रकार एक स्थान विशेष में पटाखों की बिक्री पर प्रतिबन्ध लगा देना हिन्दू जनमानस के उल्लास का मर्दन है। अब प्रश्न है कि किया क्या जाये?
कम या ज्यादा किन्तु पटाखों से प्रदूषण तो होता ही है। इसका उत्तर विज्ञान में है क्योंकि समस्या मूलतः विज्ञान जनित है।
शिवकाशी तमिलनाडु स्थित आतिशबाजी अनुसंधान एवं विकास केन्द्र (FRDC) वाणिज्य उद्योग मंत्रालय के अधीन एक छोटा सा संस्थान है जिसे 2013 में CSIR से संबद्ध करने पर विचार किया गया था। यह दुर्भाग्य है कि जो विभाग विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन होना चाहिए था वह वाणिज्य उद्योग में चला गया।
अभी यह संस्था इको-फ्रेंडली पटाखों के विकास में कितनी सफल हुई है या इसने कौन से उत्पाद बनाये हैं जो बाजार में उपलब्ध हैं इसकी कोई विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है। प्राचीन भारत में आतिशबाजी में जिन रसायनों का प्रयोग होता था उनका उल्लेख डॉ सत्यप्रकाश (स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती) की पुस्तक ‘प्राचीन भारत में रसायन’ और प्रो० गोडे के शोधपत्र The History of Fireworks in India में भी है। विचित्र विडम्बना है कि जिस देश में गन्ना, चावल, सब्जी, चमड़ा आदि के लिए भारी अनुदान प्राप्त पृथक वैज्ञानिक शोध संस्थान हैं उस देश में पटाखों से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण को किस प्रकार कम किया जाये इस पर शोध होने कि अपेक्षा प्रदूषण से उत्पन्न प्रोपैगैंडा का समर्थन और विरोध अधिक किया जाता है।
हिंदुत्व के पैरोकारों को यह समझना होगा कि समस्या का निदान मात्र हाय-तौबा करना नहीं है। जिसे हम मानव के लिए उपयोगी विज्ञान कहते हैं कि वह आज के समय में दो हैं: कम्प्यूटर विज्ञान और रसायन विज्ञान। यही कमर्शियल साइंस भी है। कम्प्यूटर विज्ञान में तो हम आगे निकल गए किन्तु रसायन में शोध को पीछे छोड़ गए। यही कारण है कि कभी देवि प्रतिमा को गंगा में विसर्जित करने से रोका जाता है तो कभी पटाखों की बिक्री पर प्रतिबन्ध लग जाता है।
यदि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे उतने ही उल्लास से कल भी दिवाली मनाएं तो यह स्वीकार करना होगा कि आज विज्ञान को राष्ट्रवाद से जोड़ने की आवश्यकता है।
अवधेश वर्मा